Thursday 19 November 2015

कभी जमीं कभी आसमान समझ में नहीं आता

कभी जमीं कभी आसमान समझ में नहीं आता,
इस दिल का ठिकाना भी समझ में नहीं आता...
मेरी आँखें उसकी यादों के चराग तो नहीं,
क्यों आये बस वो ही नज़र समझ में नहीं आता...
चाहे अनचाहे में उसे याद किया करता हूँ,
ये लत है या आदत समझ में नहीं आता...
कमबखत आशिक़ी ने जीना हराम कर दिया,
उसे भूलू या अपनी जान दूँ समझ में नहीं आता...
इस तरफ मेरा घर है उस तरफ उसका घर,
इधर जाऊ या उधर समझ में नहीं आता...
पागल सा बनके रह गया कुछ सोच सोचकर,
पहले हँसू या रोऊँ समझ में नहीं आता...
लिफाफा फट चुका मजमून भी काफी पुराण हो गया,
उसे दूँ या खत जला दूँ समझ में नहीं आता...
उसकी वफ़ा पे अब मुझे शक होने लगा है,
उसे यार कहूँ या गद्दार समझ में नहीं आता...
रक़ीबों के साथ बैठे हैं अजीज-ओ-मोहात्रिम,
कैसे करूँ सलाम समझ में नही आता...
समझाले दिल को मस्त मगन कुछ और न समझ,
फिर खुद समझ जायेगा जो समझ मैं नहीं आता...

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